टी.एल.वस्वानी गुरु गोबिंद सिंघ जी के बारे में लिखते हैं "गुरु गोबिंद सिंघ जी का व्यक्तित्व इंद्रधनुष की तरह है, उनमे , गुरु नानक देव जी जैसी नम्रता, यीशु मसीह के जैसी करुणाजनक दृष्टि, गौतम बुद्ध की तरह आध्यात्मिक विवेक (आध्यात्मिक मार्गदर्शन), पैगंबर मोहम्मद की तरह बुबलिंग एनर्जी (जोश) , सूर्य का तेज कृष्ण की तरह और अनुशासन और रॉयल ग्लैमर (शाही शान) राम के जैसी है ।"
1. परिवार और प्रारंभिक जीवन - Family and Early Life
► जन्म और बचपन - Birth and Childhood
गुरु गोबिंद सिंघ जी (5 जनवरी, 1666-21 अक्टूबर 1708), गुरु तेग बहादुर, नौवे सिख गुरु और माता गुर्जरी
जी के एकमात्र पुत्र थे। वह पटना साहिब, बिहार, भारत में "गोविंद राय" के रूप में पैदा हुए थे, वह दसवे नानक थे और इंसानी रूप में आखिरी गुरु / सिख धर्म के प्रचारक थे। उनकी शिक्षा ने सिख समुदाय और सभी मनुष्यों को पीढ़ियों तक प्रेरित किया है। वह अपने पिता नौवे गुरु, गुरु तेग बहादुर जी की शहीद के बाद 24 नवंबर, 1675 को नौ वर्ष की आयु में गुरु बने ।
► विवाह और बच्चे - Marriage and Children
4 अप्रैल,1684 को, आनन्दपुर में, गुरु गोबिंद सिंघ का माता जितो जिने माता सुंदरि के रूप में भी जाना जाता था, से विवाह हुआ, जो पंजाब के होशियारपुर जिले के खत्री भाई राम सरन की बेटी थी। उनके चार पुत्र अजीत सिंघ (7 जनवरी 1687), जुझार सिंघ (14 मार्च 1691), जोरावर सिंघ (17 नवंबर 1696) और फतेह सिंघ (25 फरवरी 1699) थे।
►खालसे कि माता "माता साहिब कौर जी" - Mother of Khalsa-Mata Sahib Kaur ji
साहिब कौर दसवे सिख गुरु, गुरु गोबिंद सिंघ जी की अनुयायी थी। उनका जन्म 1681 में रोहतास, झेलम में हुआ था। उनके माता-पिता, माता जसदेवी जी और पिता राम जी, गुरु गोबिंद सिंघ जी के भक्त थे। गुरुजी के प्रति अपने माता-पिता की भक्ति ने उसे बहुत प्रभावित किया और उन्होंने गुरु गोबिंद सिंघ जी की सेवा में अपना पूरा जीवन समर्पित करने का भी निर्णय लिया।
जब उनकी शादी का प्रस्ताव आनंदपुर में लाया गया, गुरु गोबिंद सिंघ जी पहले से ही विवाहित थे इसलिए, गुरुजी ने प्रस्ताव नामंजूर कर दीया। लेकिन साहिब देवा अपने दिल और मन से पहले ही गुरु जी को अपना पति स्वीकार कर चुकी थी। अंत में, गुरुजी ने उनको आनंदपुर में रहने के लिए सहमति देदी , लेकिन गुरुजी ने कहा साहिब देवा के साथ उनका संबंध एक आध्यात्मिक प्रकृति का होगा और भौतिक नहीं होगा और इसे "कुवारा डोला" भी कहा जाता है। परन्तु सवाल ये था तब साहिब देवा माँ कैसे बनेगी । तब गुरुजी ने कहा, "वह एक महान बेटे की 'माँ' होगी जो हमेशा के लिए जीवित रहेगा और दुनिया भर में जाना जाएंगा ।" गुरु गोबिंद सिंघ जी ने उन्हें "खाल्सा की माता" का एक अनूठा शीर्षक देकर आशीर्वाद दिया । तब से वो सिखों की आध्यात्मिक माता कहलाइ ।
2. विद्वान और योद्धा - Scholar and Warrior
गुरु साहब ने संस्कृत, उर्दू, हिंदी, ब्रज, गुरूमुखी और फारसी सहित कई भाषाओं को सीखा। गुरु गोबिंद सिंघ जी की साहित्यिक विरासत बहुत समृद्ध थी। गुरु गोबिंद सिंघ जी ने मानवजाति की सेवा में साहित्य का इस्तेमाल किया, उनकी मदद से उन्होंने लोगों की मानसिकता को आकार देने के लिए कड़ी मेहनत की ताकि वे आने वाले समय के लिए चुनौतियों का सामना कर सकें। गुरु जी ने बहुत सारी रचनाएं स्वयं की जैसे जाप साहिब, अकाल उस्तत, चंडी दी वार, जफरनामा, शब्द हजारे, बचित्र नाटक आदि
ਧੰਨ ਜੀਓ ਤਿਹ ਕੋ ਜਗ ਮੈ ਮੁਖ ਤੇ ਹਰਿ ਚਿੱਤ ਮੈ ਜੁਧੁ ਬਿਚਾਰੈ ॥
धन्य और शुभ आत्मा है जो इस दुनिया में अपने मुंह से हरि और मन में, दिमाग में धर्म के लिए युद्ध से जूझता है॥
उन्होंने आत्मरक्षा और युद्ध में उत्कृष्ट बनने के लिए मार्शल आर्ट्स को सीखा। उन्होंने यह भी महसूस किया कि एक मजबूत शरीर न केवल सैनिकों को फिट करने के लिए बल्कि आदमी के मन और समन्वय में सतर्कता लाने के लिए भी आवश्यक है । वे मार्शल गेम और शारीरिक व्यायाम को नियमित रूप से प्रेरित करते थे। इसमें शारीरिक कंडीशनिंग और सैनिकों की कड़ी मेहनत शामिल थी। सक्षम शरीर वाले को सबसे अधिक पुरस्कार दिया जाता था।
3. कला के लिए गुरु गोबिंद सिंघ जी का प्रेम - Guru Gobind Singh Ji's Love For Art
गुरु गोबिंद सिंघ जी ने सभी तरह की कलाओं का पालन किया। उन्होंने संगीत वाद्ययंत्र दिलरुबा Dilruba (Esraj) का आविष्कार किया था जिसका इस्तेमाल कई प्रसिद्ध संगीतकारों जैसे द बीटल्स और ए.आर. रहमान द्वारा उनकी संगीत रचनाओं में किया जाता है। ऐसा कहा जाता है कि गुरु के दरबार (अदालत) में 52 प्रसिद्द कवि थे और भाई नंदलाल गोया उनमें से एक थे ।
ਬਰ ਤਰ ਅਜ਼ ਹਰ ਕਦਰ ਗੁਰੂ ਗੋਬਿੰਦ ਸਿੰਘ ॥
सभी गुणों में गुरु गोबिंद सिंघ सर्वोच्च है ॥
ਜਾਵਿਦਾਨੀ ਸਦਰ ਗੁਰੂ ਗੋਬਿੰਦ ਸਿੰਘ ॥ ੧੪੪ ॥
वह शाश्वत है और हर किसी के ऊपर है ॥
4.मानवाधिकार के जन्मदाता - Guardian of Human Rights
मानव अधिकार शब्द तब अस्तित्व में आया जब औरंगजेब के जबरदस्ती धरम परिवर्तन और जुलम को रोकने के लिए कश्मीरी पंडितो ने सहायता के लिए गुरु तेग बहादुर जी के पास गुहार लगाई.। गुरु गोबिंद सिंघ जी जो उस वक़्त 9 साल के थे अपने पिता की गोद में आ कर बैठ गए और पूछने लगे कया बात है पिता जी ? तो गुरु तेग बहादुर जी "बोले बेटा इन लोगों का धरम खतरे में है, जिसे बचाने के लिए किसी महान आत्मा को बलिदान देना होगा ।" तब गोबिंद राय बोले " पिता जी इस वक़्त समस्त ब्रह्मण्ड में आप से महान आत्मा कोई नहीं है इस लिए आपको ये आतम बलिदान देना चाहिए ।" सम्पूर्ण मानव इतिहास में सिर्फ यही एक उदाहरण है जब किसी 9 साल के नन्हे बालक ने अपने ही पिता को किसी दूसरे का धरम बचाने के लिए खुद का बलिदान करने की प्रेरणा दी ।
5.शहीद पिता के बेटे और शहीद बेटों के पिता - Son of a Martyr & Father of Martyrs
सारे विश्व में केवल गुरु गोबिंद सिंघ ही ऐसे मनुष्य है जो शहीद पिता के बेटे और शहीद बेटों के पिता है । गुरु गोबिंद सिंघ जी के पिता गुरु तेग बहादुर जी ने दूसरों का धरम (हिन्दू धरम ) बचाने के लिए 24 नवंबर 1675 को चांदनी चौक दिल्ली में अपना सीस दे कर अपना आतम बलिदान किया उस वक़्त गोबिंद राय सिर्फ 9 साल के थे |
ਜਬ ਆਵ ਕੀ ਅਉਧ ਨਿਦਾਨ ਬਨੈ ਅਤ ਹੀ ਰਨ ਮੈ ਤਬ ਜੂਝ ਮਰੋਂ ॥੨੩੧॥
जब कोई रास्ता न बच्चे और आन बाण पे बन आये तो युद्ध के मैदान में झूझ के मरना ही बेहतर है ॥231॥
गुरु गोबिंद सिंघ जी के चार साहिबज़ादे (पुत्र) भी धरम की रक्षा के लिए शहीद हुए | बड़े शाहिबज़ादे बाबा अजित सिंघ जी (January 7,1687-December 22,1704 ) उम्र 17 साल और बाबा झुझार सिंघ जी (March 1689-December 22,1704) उम्र 15 साल चमकौर साहिब के मैदाने जंग में 10 लाख मुग़ल सैनिको और पहाड़ी हिन्दू राजाओं की सेना के साथ झुझते हुए शहीद हुए और छोटे शाहिबज़ादे बाबा जोरावर सिंघ (17 November 1696-Dec 27,1704) उम्र 7 साल और बाबा फ़तेह सिंघ (25 February 1699-Dec 27,1704) उम्र 5 साल, को जिन्दा दीवारों में चिन दिया गया । गुरु जी की माता जी माता गुजर कौर जी को भी ठन्डे बुर्ज फतेहगढ़ साहिब में शहीद किया गया । बड़े साहिबज़ादों की याद में चमकौर साहिब में आज गुरुद्वारा कतलगढ़ साहिब और छोटे साहिबज़ादों की याद में गुरुद्वारा फतेहगढ़ साहिब सुशोभित है ।
6. अन्याय के खिलाफ युद्ध -The Battle Against Oppression
ਚੁ ਕਾਰ ਅਜ਼ ਹਮਹ ਹੀਲਤੇ ਦਰ ਗੁਜ਼ਸ਼ਤ ॥ ਹਲਾਲ ਅਸਤ ਬੁਰਦਨ ਬ ਸ਼ਮਸ਼ੀਰ ਦਸਤ ॥੨੨॥
जब सभी अन्य तरीके असफल हो जाते हैं, तो हाथ में तलवार पकड़ना उचित है ॥22॥
गुरु जी ने जो भी युद्ध किये उनका उदेश कभी भी कोई राजनैतिक या निजी फायदा नहीं था | उन्होंने हमेशा अन्याय के खिलाफ और अपने दिव्या उपदेश फैलाने के लिए युद्ध लड़े । उन्होंने हमेशा कहा की जब शांति के सभी दरवाजे बंद हो जाएँ तब पुनः शांति कायम करने के लिए किरपान उठाना जायज है | पूरी दुनिया में वे एकमात्र व्यक्ति है, जो अन्याय के खिलाफ लड़े, इतनी सारी जीतों के बाद भी, उन्होंने कभी भी दुनिया के किसी भी क्षेत्र पर अधिकार नहीं जताया । उन्होंने अपने पूरे परिवार और रिश्तेदारों को मानवता की भलाई और अन्याय को रोकने के लिए बलिदान कर दिया । गुरु जी ने 14 लड़ाई लड़ी, उनमें से कुछ का वर्णन इस प्रकार है :
भांगानी की लड़ाई (1689): सितंबर 1689 में, 19 वर्ष की उम्र में, गुरु गोबिंद सिंघ जी ने भीम चंद, गढ़वाल राजा फतेह खान और शिवालिक पहाड़ियों के अन्य स्थानीय राजाओं के एक संबद्ध बल के खिलाफ भांगानी की लड़ाई लड़ी। लड़ाई एक दिन तक चली और गुरु जी विजयी हुए ।
नादौन की लड़ाई (1690): राजा भीम चंद के अनुरोध पर मुगलों के खिलाफ लड़ी गई और गुरु जी की जीत हुई ।
आनंदपुर साहिब की लड़ाई (1704): मुगलों और पहाड़ी राजों के संयुक्त बलों के खिलाफ एक लंबे समय तक घेराबंदी के बाद, गुरु जी ने आनंदगढ़ किला छोड़ा ।
चमकौर की लड़ाई (1704): गुरु जी के साथ चालीस सिखों ने बहादुरी से 10 लाख शत्रुओं के खिलाफ युद्ध लड़ा और शहीद हो गए । गुरु के दो बड़े पुत्र भी इस युद्ध में शहीद हुए ।
मुक्तसर की लड़ाई (1704): चालीस सिख आनंदपुर साहिब को छोड़ कर चले गए थे, वे गुरु के पास वापस लौट आए और मुग़ल सेना के खिलाफ लड़ते हुए शहीद हो गए | गुरुजी ने उन्हें "चालीस मुक्ते" कह कर पुकारा ।
7.एक नेता के रूप में ख़ालसा पंथ का निर्माण As a Leader Creation of the Khalsa - The Way of Life
ਆਗਿਆ ਭਈ ਅਕਾਲ ਕੀ ਤਬੀ ਚਲਾਇਓ ਪੰਥ ।।
परमेश्वर की आज्ञा से मैंने ये पंथ चलाया है ।।
भारत अलग-अलग विदेशी ताक़तों के तहत 1000 साल से गुलाम था । जब लोगों को इस्लाम स्वीकार करने के लिए मजबूर किया गया और जो लोग इनकार करते थे, उन्हें मार दिया जाता था और उन पर भयानक अत्याचार किये जाते थे । कुछ राजपूतों को छोड़कर हिंदुस्तान में कोई हाथी या घोडे की सवारी नहीं कर सकता था, किसी को भी सशत्र रखने की मनाही थी । भारतीय पंडितों ने हिंदुओं को जातिवाद में विभाजित किया हुआ था और अनेक धार्मिक कर्मकांडों में फसाया हुआ था । आम लोग घबराये हुए थे और लोगों का जीवन नरक बना हुआ था । उस समय गुरु गोबिंद सिंघ जी ने , बेसाखी 1699 के दिन पवित्र बानी और अमृत संस्कार के साथ खालसा पंथ की स्थापना की । समाज के दबे कुचले लोगों को राजनैतिक अन्याय और धार्मिक पुजारियों के कामकांडों के खिलाफ लड़ने के लिए उन्होंने संत और सिपाही बनाये। गुरु गोबिंद सिंघ जी ने शानदार रणनीति और नेतृत्व से सिखों को निडर और एकजुट होकर खालसा पंथ की स्थापना की ।
खालसा की सृजना के साथ गुरु जी ने जात-पात के भेद भाव को हमेशा के लिए सिख समाज से ख़तम कर दिया । 1699 में, जब बाकी दुनिया अभी भी गुलामी और जाति व्यवस्था की बेड़ियों में जकड़ी हुई थी , गुरु गोबिंद सिंघ जी ने सभी मनुष्यों को बराबर घोषित किया। गुरु गोबिंद सिंघ ने घोषित किया कि 5 सिखों की एक कोरम का मतलब गुरु की उपस्थिति है । उन्होंने अपने अनुयायियों को एक ऐसी पहचान प्रदान की, जिसे कभी छिपाया नहीं जा सकता ।
8.पांच प्यारे - गुरू के पाँच प्यारे The Panj Pyare - The Five Beloved of Guru
1.भाई दया सिंघ (1661-1708) - शब्द "दया" का अर्थ "दयालु सवभाव है।
2.भाई धरम सिंघ (1666-1708) - "धरम" का अर्थ "सच के मार्ग पे चलने वाला है।
3.भाई हिमत सिंघ (1661-1705) - "हिम्मत" का अर्थ है "साहसी आत्मा ।"
4.भाई मोहकम सिंघ (1663-1705) - "मोहकम " का अर्थ " बुराइयों पर विजय प्राप्त करना ।
5.भाई साहिब सिंघ (1662-1705) - "साहिब" का अर्थ है "प्रभुत्वपूर्ण या स्वामित्वपूर्ण या परमात्मा में विलीन होना ।"
इन पांचों के नाम का मूल अर्थ ही " जिंदगी जीने का एक तरीका है"। जब किसी के पास अपने दिल में "दया" होती है तभी वो "धर्म" के मार्ग पर चल सकता है और जो धर्म के रास्ते पर चलता है तो उस में इतनी "हिम्मत" या साहस आ जाता है जिस से वो हर शत्रु पर (अपनी अंदर की बुराइयों पर ) विजय पा लेता है इसी को "मोहकम" कहा जाता है और अंत में जो सभी बुराइयों से मुक्त है वह "साहिब" या वाहिगुरू / भगवान में विलीन हो जाता है । ये गुरु गोबिंद सिंघ जी के इन पांच प्यारों का पूरा अर्थ है, जो हमें जीवन का मार्ग बताता है।
9.समानता का प्रतीक -सिंघ और कौर The equlity of Human Being - Singh and Kaur
ਹਿੰਦੂ ਤੁਰਕ ਕੋਊ ਰਾਫਜੀ ਇਮਾਮ ਸਾਫੀ ਮਾਨਸ ਕੀ ਜਾਤ ਸਬੈ ਏਕੈ ਪਹਿਚਾਨਬੋ ॥
"कोई हिंदू हैं, कोई मुस्लिम, कोई शिया हैं और कोई सुन्नी हैं परन्तु मनुष्य की एक ही जाती है ॥"
1699 की वैसाखी को, गुरु गोबिंद सिंघ जी ने उच्चारण किया - "वाहेगुरु जी का ख़ालसा, वाहेगुरु जी की फतेह"। उन्होंने अपने सभी अनुयायियों को सिंघ और कौर शीर्षक दिया। सिंघ का मतलब है 'शेर' और कौर का अर्थ है 'राजकुमारी' । सिख धर्म में जाती के आधार पर नाम (जो कि एक विशिष्ट जाति को दर्शाता है) के भेदभाव को खत्म किया और यह पुस्टि की कि सभी इंसान परमेश्वर के अधीन हैं और समान हैं । औरतों को वो सभी अधिकार दिए गए जो कि मर्दों को प्राप्त है ।
10.पांच 'K के सिद्धांत The principles of the Five 'K's - The 5 Articles of Faith
गुरु गोबिंद सिंघ द्वारा दिए गए विशेष 5 ककार जिन्हे the 5 Articles of Faith कहा जाता है, जिसे एक सिख को हर वक़्त अपने साथ रखना पड़ता है । जब गुरुजी ने इसे सभी सिखों के लिए अनिवार्य किया, तो उन्होंने उन्हें एक अनूठे शारीरिक रूप में एकजुट किया। ये पांच 'के' जीवन के पांच सिद्धांत हैं जो एक खालसा के जीवन में बहुत महत्व रखते हैं और उनके पीछे एक गहरा अर्थ है।
1. केश (बाल):
बालों, को सर्वशक्तिमान का एक उपहार माना जाता है और इसे अपने प्राकृतिक अवस्था में रखा जाना चाहिए। गुरु नानक देव जी ने इस प्रथा की शुरूआत की, और गुरु गोबिंद सिंघ जी ने सिखों को इनकी रक्षा के
लिए पगड़ी पहनने के निर्देश दिए।
2. कंघा या लकड़ी की कंघी - सफाई का प्रतीक:
एक सिख को निर्देश दिया गया है कि वह हमेशा कंघी अपने साथ रखे और एक दिन में दो बार अपने बालों को कंघी करे और अपनी पगड़ी को साफ ढंग से बांदे । पगड़ी बालों की रक्षा और सामाजिक पहचान को बढ़ावा देने के लिए बांदी जाती है।
3. लोहे का कड़ा :
कड़ा, दाईं कलाई में पहना जाता है, यह आत्म संयम का प्रतीक है ।
4. किरपान :
किरपान अपने आप की और गरीब, कमजोर और सभी धर्मों, जातियों और पंथों के पीड़ितों की रक्षा के लिए साहस और हिमत का प्रतीक है। यह आत्मनिर्भरता और आत्मरक्षा का भी प्रतीक है।
5. कछहरा या कच्छा:
कछहरा, सिखों को क्रोध, वासना और जुनून पर आत्म अनुशासन के बारे में याद दिलाता है। यदि एक सिख कभी नकारात्मकता के क्षण में फस जाता है, तो कछरा उसे अपने कर्तव्यों की याद दिलाता है
11.नम्रता और संयम-गुरु और शिष्य Humility and Temperance- Master and Disciple
गुरु जी के जीवन से एक ओर अच्छी बात यह सिखने को मिलती है कि जब हमे सफलता मिलती है तो कभी उतावला नहीं होना चाहिए बल्कि विनर्म बने रहना चाहिए ओर अगर असफलता मिलती है तो कभी उदास नहीं होना चाहिए, उनके जीवन से हमे विनम्रता का एक महान उदाहरण मिलता है, जब उन्होंने अपने पांच पियरों के सामने घुटने टेक के उनसे अमृत पान के लिए आग्रह किया । इस प्रकार उन्होंने अपने शिष्यों को खुद से महान दर्जा दिया । उन्होंने अपने अनुयायियों को कहा कि वे उसे परमेश्वर के रूप में न मानें । वह खुद भगवान का एक साधारण मनुष्य है वे इतने विनम्र थे कि उन्होंने अपनी सफलताओं का सारा श्रेय भी अपनी अनुयायियों को दिया ।
ਜੇ ਹਮ ਕੋ ਪਰਮੇਸਰ ਉਚਰਿ ਹੈ ॥ ਤੇ ਸਭ ਨਰਕ ਕੁੰਡ ਮਹਿ ਪਰਿ ਹੈ ॥ ਮੋ ਕੌ ਦਾਸ ਤਵਨ ਕਾ ਜਾਨੋ ॥ ਯਾ ਮੈ ਭੇਦ ਨ ਰੰਚ ਛਾਨੋ ॥
'जो मुझे भगवान समझेंगे वो नरक में जायेंगे । मुझे उस परमेश्वर वाहेगुरु का एक सेवक समझो, ओर इसमें जरा मात्र भी झूठ नहीं है ॥
ਮੈ ਹੋ ਪਰਮ ਪੁਰਖ ਕੋ ਦਾਸਾ ॥ ਦੇਖਨ ਆਯੋ ਜਗਤ ਤਮਾਸਾ ॥ (Dasam Granth:132)
मैं उस वाहेगुरु का सेवक हूँ ओर उसकी रची इस दुनिया के खेल तमासे देखने आया हूँ ॥
12.सभी धर्मों और उनके पवित्र चीज़ों का सम्मान-Respect all Religion and Their Sacred Things
ਨਾ ਕੋ ਬੈਰੀ ਨਹੀ ਬਿਗਾਨਾ ਸਗਲ ਸੰਗਿ ਹਮ ਕਉ ਬਨਿ ਆਈ ॥
कोई भी मेरा दुश्मन नहीं है, और कोई मेरे लिए अजनबी नहीं है मैं सभी के साथ मिलता हूं ॥(1299)
मुग़ल सेना और हिन्दू पहाड़ी राजाओ द्वारा श्री आनन्दपुर साहिब किले कि 9 महीने तक घेरा बंदी और गुरु जी को पकड़ने कि नाकाम कोशिश के बाद मुगलों ने गुरु जी के साथ समझौता किया कि अगर वो इस किले को छोड़ कर चले जायेंगे तो हम आपके सभी लोगों को यहां से सुरक्छित जाने का रास्ता दे देंगे । इस के लिए मुगलों ने औरंगजेब का लिखित पत्र गुरु जी को दिया और मुगलों ने पवित्र कुरान सरीफ की और हिन्दू राजाओं ने गऊ की कसम खाई । किले में भोजन और गोला-बारूद की काफी कमी थी तो गुरु जी ने अपने सिखों से विचार विमर्श कर मुगलों और हिन्दुओं की खाई कसम पे विश्वाश करके किले को छोड़ने का निर्णय लिया । तब गुरु गोबिंद सिंघ जी और 400 सिखों ने 20 दिसंबर,1704 को कड़ाके की ठंडी और बरसात की रात में श्री आनन्दपुर साहिब को छोड़ दिया। परन्तु मुगलों और राजपूत पहाड़ी राजाओं ने अपनी खाई पवित्र कसमों को तोड़ दिया जैसे ही सिखों ने अपने अभेद्य किले की सुरक्षा को छोड़ा उन लोगों ने पीछे से गुरु जी और सिखों पे हमला बोल दिया ।
13.अंधविश्वासी लोग-मसनद / पुजारी - About Superstitious People and Masands
गुरु जी को पुजारियों और मसंदों के खिलाफ कई शिकायतें मिलीं, जो गरीब लोगों को लूटते थे और उनके द्वारा दिए गए धन और सेवाओं का दुरुपयोग करते थे । गुरू साहिब ने उन सब को दंडित किया । इसके बाद लोग अपनी सेवाएं सीधे गुरु जी को वार्षिक वैसाखी मेले में भेंट करने लगे । गुरु जी एक मजबूत आत्मसम्मान वाला पंथ बनाना चाहते थे। उन्होंने सिखों को साहस,वीरता,सरलता और कड़ी मेहनत से जीवन जीने को प्रेरित किया।
एक बार जब ब्राह्मणों ने जोर देकर कहा कि अपने हर युद पर जीत की मुहर लगाने के लिए उन्हें देवी दुर्गा की पूजा करनी चाहिए और यग करवाना चाहिए, तो वो इस पर सहमत हो गए और एक यग का आयोजन किया परन्तु जब ब्राह्मणों के उस यग से कुछ भी प्रगट नहीं हुआ तो, गुरुजी ने अपनी किरपान को बहार निकल लिया और कहा, "ये तलवार ही हमारी दुर्गा है, जो हमें हमारे शत्रुओं पर विजय दिलाएगी "। इस तरह उन्होंने हर कर्मकांड को नकार दिया और जीवन में मेहनत, सादा जीवन, साहस और सच के रस्ते पे चलते हुए उस एक परमेश्वर वाहेगुरु से जुड़ने का उपदेश दिया ।
ਕਾਹੂ ਲੈ ਪਾਹਨ ਪੂਜ ਧਰਯੋ ਸਿਰ ਕਾਹੂ ਲੈ ਲਿੰਗ ਗਰੇ ਲਟਕਾਇਓ ॥
कोई पथर को पूज रहा है, कोई माथे पे तिलक लगता है और कोई लिंग गले में लटका के घूम रहा है ।
ਕਾਹੂ ਲਖਿਓ ਹਰਿ ਅਵਾਚੀ ਦਿਸਾ ਮਹਿ ਕਾਹੂ ਪਛਾਹ ਕੋ ਸੀਸੁ ਨਿਵਾਇਓ ॥
कोई कहता ह भगवन पूर्व में है तो कोई कहता है पश्चिम में है ,
ਕੋਉ ਬੁਤਾਨ ਕੋ ਪੂਜਤ ਹੈ ਪਸੁ ਕੋਉ ਮ੍ਰਿਤਾਨ ਕੋ ਪੂਜਨ ਧਾਇਓ ॥
कोई मूर्ति पूजा में लगा है, कोई मर्त कब्रों को पूजने में लगा है ,
ਕੂਰ ਕ੍ਰਿਆ ਉਰਿਝਓ ਸਭ ਹੀ ਜਗ ਸ੍ਰੀ ਭਗਵਾਨ ਕੋ ਭੇਦੁ ਨ ਪਾਇਓ ॥10॥30॥
सारी दुनिया कर्मकांडों में फांसी हुई है असल में कोई भी उस परमेश्वर का भेद नहीं जान पाया
14.भविष्य दर्शी - Forward Looking
ਆਗਿਆ ਭਈ ਅਕਾਲ ਕੀ ਤਬੀ ਚਲਾਇਓ ਪੰਥ॥ ਸਭ ਸਿੱਖਨ ਕੋ ਹੁਕਮ ਹੈ ਗੁਰੂ ਮਾਨਿਓ ਗ੍ਰੰਥ ॥
उस परमेश्वर वाहेगुरु जी की आगिया से ये खालसा पंथ बनाया गया है, सभी सिखों को हुकम किया जाता है की केवल गुरु ग्रन्थ साहिब जी को ही अपना गुरु माने ॥
जो सिख धर्म और पवित्र ग्रंथ गुरु ग्रंथ साहिब का रूप हम लोग आज देखते है वो गुरु गोबिंद सिंघ जी द्वारा अंतिम रूप में तैयार किया गया है । 1708 में अपने नश्वर शरीर को छोड़ने से पहले, गुरु गोबिंद सिंघ जी ने "गुरु ग्रंथ साहिब" को सिखों के अगले और शाश्वत गुरु के रूप में घोषित कर दिया था । गुरु जी मानव रूप में सिखों के 10 वें और अंतिम गुरु थे, उन्होंने कुछ सिद्धांत सिखों के लिए बनाये और उनपे चलने के निर्देश दिए जिसे 'खालसा' या सिख रहत मर्यादा कहा जाता है अंत में गुरु जी ने सभी को उनके बाद गुरु ग्रंथ साहिब जी को अपना शाश्वत गुरु स्वीकार करने का आदेश दिया।
15.एक अद्वितीय व्यक्तित्व - A Unique Personality
गुरु गोबिंद सिंघ जी एक शासक नहीं थे, फिर भी उन्होंने अपने नैतिक चरित्र के बल के माध्यम से लोगों के दिलों पर शासन किया। वह विचार, शब्द और काम में एक सच्चे समाजवादी थे। कभी 9 वर्ष के बच्चे गुरु गोबिंद सिंघ ने अपने दबे कुचले देशवासियों की खातिर, जिनकी धार्मिक स्वतंत्रता खतरे में थी अपने पिता से जाने के लिए कहा और उनके सिर की पेशकश की । उन्होंने अपने युवा बेटों को अन्याय के विरुद्ध लड़ने के लिए तैयार किया, जहां मृत्यु निश्चित थी । उन्से पहले कभी भी किसी भी धार्मिक नेता या राजनैतिक नेता ने बिना किसी मतलब के अपना सब कुछ दूसरों के लिए बलिदान नहीं किया। इससे पहले कभी कोई भी धार्मिक नेता अपने अनुयायियों के सामने घुटने टेक कर नहीं बैठा और कभी किसी धार्मिक नेता ने अपने शिष्यों को खुद से बेहतर नहीं माना । कभी भी किसी योद्धा ने ऐसा युद्ध नहीं लड़ा जो गुरु गोबिंद सिंघ जी ने लड़ा ।
ਮਿੱਤਰ ਪਿਆਰੇ ਨੂੰ ਹਾਲ ਮੁਰੀਦਾ ਦਾ ਕਹਿਣਾ ॥
मित्र प्यारे नू हाल मुरीदा दा कहना ।।
Hentry Dunant से 200 साल पहले गुरु जी ने रेड क्रॉस की स्थापना कर दी थी जब उन्होंने भाई कन्हैया जी को मरहम-पट्टी और पानी दे कर घायल सैनिकों को उनका धरम या जात पूछे बिना उनकी सेवा में लगा दिया था । उनके लिए अत्याचार और धार्मिक जुल्म के खिलाफ शस्त्र न उठाना पाप के सामान था । उन्होंने आध्यात्मिक मूल्यों के साथ किरपान उठा कर आत्मरक्षा के सिद्धांत को उजागर किया । वह जनता को समझाने में सफल हुए कि एक राष्ट्र की नियति केवल तभी बदलती है जब लोग खुद को बदलने का प्रयास करते हैं। उन्होंने एक भक्त के उत्साह के साथ सैनिक के साहस को मिश्रित किया । उन्होंने इस अवधारणा पर जोर दिया की हथियार/शस्त्र भगवान की पूजा का माध्यम थे । उनके नेतृत्व में गुरु नानक जी के समय की गाय शेर बन गई थी। उन्होंने आम लोगों और किसानो को अनुशासित सैनिकों की ताकत में परिवर्तित किया। उनके सक्षम और चमत्कारी नेतृत्व में समाज के मुट्ठी भर दबे कुचले लोगो ने मुगलों की तथाकथित अजेय शक्ति को भी परास्त कर दिया ।
16.Diffrent Name of Guru Gobind Singh ji
1. 'सरबंश दानी ' - गुरू जी को 'सरबंश दानी' के रूप में जाना जाता है, क्योंकि उन्होंने जुल्म और अत्याचार के खिलाफ लड़ने के लिए अपना संपूर्ण वंश (परदादा , पिता, माता, चार छोटे बेटों, चचेरे भाई ) सब कुछ कुर्बान कर दिया था।
2. कलगियाँ वाला
3. दशमेश पिता
4. बाज़ां वाला
5. साहिब- ए- कमाल
6. मर्द अगमडा
7. संत सिपाही
8. आपे गुरू चेला
9. अमृत दा दाता
10. नीले दा साह सवार
11. परमपुरख का दासा
12. आनंदपुर दा वासी
13. हेमकुंट वासी
14. खालसे दा पिता
15. उच दा पीर
16. सच्चे पातशाह
17. बादशाह दरवेश
उन्होंने न केवल अपने चार पुत्रों को बल्कि पूरे खलसा पंथ को अपने बेटों और बेटियों के रूप में माना । अपने खुद के बच्चों और सिखों में उन्होंने कोई भेद भाव नहीं किया । उन्होंने कहा "इन पुत्रन के शीश पे वार दिए सुत चार, चार मुवे तो काया भया जीवत कई हज़ार" गुरु जी ने खालसे को अपनी छवि बताया और कहा कि वह स्वयं खालसा में मौजूद है।
गुरु गोबिंद सिंघ जी ने अपने भौतिक शरीर को 1708 में, अब्चल नगर, हजूर साहिब (नांदेड़, महाराष्ट्र, भारत) में त्याग दिया। उन्होंने गुरु ग्रंथ साहिब के चारों ओर चाकर लगाया और कहा कि, "हे प्यारे खलसा जी, जो मुझे देखने की इच्छा रखते हैं, वे गुरु ग्रंथ साहिब जी को पढ़ें और विचारें, यह गुरुओं का दृश्यमान शरीर है। इसी में खोजें और इसके सिद्धांतों का पालन करें ।
'वाहेगुरु जी का ख़ालसा, वाहेगुरु जी की फतेह' ||